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बहस अपनी-अपनी: माहेश्वर तिवारी के साक्षात्कार के बहाने

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यह बहस फेसबुक पर जगदीश व्योम जी ने तब प्रारम्भ की थी जब वरिष्ठ नवगीतकार माहेश्वर तिवारी जी के साथ यश मालवीय का साक्षात्कार दैनिक जागरण के पुनर्नवा पृष्ठ पर (24/08/2015) प्रकाशित हुआ था:

 

जगदीश व्योम: माहेश्वर तिवारी का साक्षात्कार दैनिक जागरण में प्रकाशित हुआ है। यश मालवीय के साथ नवगीत पर बात करते हुए माहेश्वर तिवारी ने कहा है कि "कवि सम्मेलन जन से जुड़ने का एक सशक्त माध्यम है। मैं मंच से कभी पलायन नहीं करूँगा। कुछ गम्भीर कवियों ने मंच को अछूत समझकर कविता का बड़ा अपकार किया है। वैसे आज कवि सम्मेलन की जगह कविता सम्मेलन किए जाने की जरूरत है। जब आप जगह खाली करेंगे तो वह जगह खाली तो रहेगी नहीं, कोई न कोई भांड़, विदूषक या नौटंकीबाज वहाँ काबिज हो जायेगा। कहाँ तक सहमत हैं माहेश्वर तिवारी जी की इस बात से कि "कुछ गम्भीर कवियों ने मंच को अछूत समझकर कविता का बड़ा अपकार किया है?"

 

प्रतिक्रियाएँ :

 

  • Shivanand Singh Sahyogi (शिवानंद सिंह सहयोगी): दादा के शब्दों में दम होता है. सत्य वचन.
  • Saurabh Pandey (सौरभ पाण्डेय): जगदीश व्योमजी, पिछले दिनों विमर्श के समूह में इन्हीं विन्दुओं पर हम सबने खुल कर बातें की थींं. आ. माहेश्वर तिवारीजी का उन विशिष्ट विन्दुओं पर तार्किक तौर पर स्पष्ट होना संतुष्ट करता है.
  • Jagdish Vyom (जगदीश व्योम): जी सौरभ जी, माहेश्वर तिवारी जी ने प्रकारान्तर से उसी विमर्श को आगे बढ़ाया है इस साक्षात्कार के माध्यम से। 
  • Saurabh Pandey: सत्य कहा आपने. मैं तो हैरान हूँ कि यशजी के प्रश्नों पर जिस तरह से आ. माहेश्वरजी ने विन्दुवत बातें की हैं इस तरह से आजकी तारीख में बोलने वाले कम रह गये हैं. जो हैं, उन्हें प्रकारान्तर से न सुनने का हठ पाल लिया गया है. आपने जिस तरह से उक्त विमर्श को इस समूह में इनिशियेट किया. ’जागरण’ में छपा यह साक्षात्कार उसी का विस्तार सदृश है.
  • K.k. Bhasin (के के भसीन): जगदीश व्योम जी ! माहेश्वरी तिवारी जी का साक्षात्कारः पढ़ा ! माहेशवर जी वे नहीं बात कहीं है जो मैंने अपनी पोस्ट में कही थी जिसकी। वजह से मुझे 'ये कौन न्यायाधीश हैं' जैसी उपाधि से विभूषित होना पड़ा ! ख़ैर , माहेशवर जी वे सही कहा है कि मंच गीत/कविता का सशक्ति माध्यम है ! उन्होंने बहुत सटीक बात कही कि चुटकुलेबाज और नौटंकीबाज़ अपना काम करते हैं आप अपना ! आप उन्हें रोक नहीं सकते ! आदरणीय , यदि उन माध्यमों से नवगीत अपने को दूर रखेगा जो श्रोताओं तक पहुँचे का सीधा रास्ता है तो हम अच्छे साहित्य के लिये दूसरों से डर कर नयी राह क्यों तलाशे बल्कि इस कोशिश में लगे कि हल्की बात कहने वाले हमारी राह से घबरा कर पलायन करें 'मेरे रस्ते तो जंगल से ही गुज़रते है , तुझे तकलीफ़ है तो राह बदल सकता है ! ' गीत/कविता की राह इतनी आसान भी नहीं कि जब चाहा क़लम उठायी और लिख मारा !
  • अवनीश सिंह चौहान: पिछली बार एक इंटरव्यू पर तमाम विद्वानों ने अपनी बात रखी थी। इस बार प्रतिक्रियाएं बहुत कम आयी हैं। क्या कारण हो सकता है, व्योम जी?
  • अवनीश सिंह चौहान: तिवारी जी ने नवगीत के समकालीन परिदृश्य पर चुप्पी साधते हुए नई पीढ़ी के जो नाम गिनाये हैं वे कहीं इरादतन तो नहीं है? कहीं इससे यह संकेत तो नहीं होता कि नवगीत में भेड़ों की तरह गुट बनाकर चलने की परंपरा मौजूद है ?
  • Ganga Pd Sharma (गंगा प्रसाद शर्मा): यह साक्षात्कार नवगीत पर एक सार्थक चर्चा कहा जा सकता है। एक गीतकार की दृष्टि से लिया गया यह साक्षात्कार स्वाभाविक भाव से संवेदनाओं को ही अधिक महत्त्व देता है।इस साक्षात्कार में नवगीत को समकालीन कविता के समकक्ष चिंतन वाली विधा तो माना गया है पर समकालीन कविता की मूल प्रवृत्तियों जैसे उत्तर आधुनिकता और नव उदारवादी प्रवृत्तियों को उपेक्षित ही रहने दिया गया है। लेकिन फिर भी नवगीत पर काफ़ी कुछ समेटने की कोशिश यहाँ दिखती है जो स्वागत योग्य है। माहेश्वर तिवारी जी नवगीत को जीते ही नहीं उसे जीवन भी देते हैं।वैसे सभी गीत नवगीत अंतःसलिला से ही फूटते हैं पर इनके तो और गहरे अंतस्तल के ऐसे किसी पाताल तोड़ कुएं को भेद कर आते हैं कि उनके उत्स का छोर ही नहीं मिलता।इन्हें और इनके नवगीतों को अलगाना मुश्किल है। इन्हें-उन्हें परस्पर प्रतिछवियाँ कहा जा सकता है। जैसा कि गीतकार ने स्वयं भी स्वीकारा है और वैसे भी इन्हें पढ़-सुन कर ऐसा लगता है कि जैसे इन्होंने नवगीत नहीं नवगीतों ने इन्हें रचा है।
  • Bhartendu Mishra (भारतेन्दु मिश्र): तिवारी जी के अपने रचनाधर्म को लेकर अच्छी चर्चा हुई है। नवगीत को लेकर उसके दोहरे संघर्ष को लेकर जिसके वो साक्षी रहे हैं उस पर और बात होती तो अच्छा लगता.उनके समकालीनो को लेकर भी चर्चा होनी चाहिए....इसी प्रकार नवगीत के इतिहास पर कुछ और सवाल हो सकते थे आदरणीय से..अब भाई यश मालवीय ने प्रश्नावली जैसी बनाई हो वैसे ही उत्तर मिलने स्वाभाविक हैं।
  • Jagdish Vyom: केवल प्रशंसात्मक बातें ही यहाँ न लिखिये... यह विमर्श का मंच है..... यहाँ पहले से ही नवगीत के इसी सन्दर्भ पर चर्चा हो रही थी और इसी बीच आज यह साक्षात्कार प्रकाशित हुआ जो विमर्श के विषय से जुड़ा हुआ है इसीलिए यहाँ इसे पोस्ट किया गया है..... यदि कुछ छूट गया है तो उस पर भी दृष्टि डालें.... ऐसे और कौन से प्रश्न हो सकते हैं जिन्हें साक्षात्कार लेने वाले को पूछना चाहिए था परन्तु नहीं पूछा गया..... या आपकी दृष्टि से कुछ और बहुत महत्त्वपूर्ण जो छूट रहा हो.......
  • अवनीश सिंह चौहान: नवगीत में जातिबोध और अंधभक्ति की भी बड़ी भूमिका रही है - उठाने-गिराने से लेकर जय-जयकार करने तक। लेकिन कुछ विद्वान ऐसे भी हैं जो जातिवादी मानसिकता और भक्ति-भावना से ऊपर उठकर सच कहने का साहस रखते हैं। ऐसे सत्यनिष्ठ गुणीजनों को मैं हृदय से नमन करता हूँ। आ. भारतेंदु जी ने एक गंभीर बात कही है कि 'प्रश्नावली जैसी बनाई हो वैसे ही उत्तर मिलने स्वाभाविक हैं।" यानि कि - प्रश्नावली कैसी है और क्यों है, विचारणीय है? और प्रश्नोत्तर देने वाले ने ऐसे प्रश्नों पर अपना मत कैसे और क्यों रखा, जबकि वह वरिष्ठतम नवगीतकारों में से एक हैं?
  • Ramakant Yadav (रमाकांत, रायबरेली): पूरा साक्षात्कार पढ़ने पर कई तरह के प्रश्न उभर रहे हैं। पहली चीज तो यह कि यश मालवीय ने पृष्ठभूमि को कुछ ज्यादा ही सजा दिया है। सम्मान और प्रशंसा में शब्दों का अलंकरण ऐसा भी न हो कि कविता पीछे छूट जाए और कवि आदमी न होकर बड़़ा आदमी नजर आने लगे। 'मेघ मंद्र स्वर हवाओं में गूंज रहा है'- मुझे नहीं लगता कि माहेश्वर तिवारी या किसी भी समकालीन गीतकवि को ऐसी किसी अलंकारी भाषा की जरूरत है। आज का समय इस भाषा को स्वीकार करने को जरा भी तैयार नहीं। और माहेश्वर तिवारी के गीतों को मानक मानना अभी जल्दबाजी होगी। माहेश्वर तिवारी कहते हैं कि गीत लेखन के लिए बहुत भटकना पड़ता है, पर वे भटकते हुए गये कहां? नदी, झील, पर्वत, झरने, मरुस्थल के पास वह भी आवारगी करते हुए। आज का नवगीत ऐसी आवारगी को मान्यता कतई नहीं देता जहां आम आदमी, उसकी पीड़ा, शोषण, अन्याय दिखायी ही न पड़े, या बाइ-चान्स दिखायी भी पड़ जाए, तो वहां भी तफरी के लिए जगह बना ली जाए।
  • Om Prakash Tiwari (ओम प्रकाश तिवारी): मैं इस बात से तो सहमत हूँ कि खाली जगह को कोई न कोई भरता ही है। चाहे साहित्य हो, चाहे राजनीति या कोई और क्षेत्र। कवि सम्मेलनों में अच्छे गीतों और छंदों को प्रशंसा हमेशा मिलती रही है, बशर्ते वे गीत-छंद समाज से जुड़े प्रासंगिक विषयों पर केंद्रित रहे हों।
  • Ramakant Yadav (Raebareli): और यह ठीक ही कहा है तिवारी जी ने कि आवारगी का बड़ा सहयोग मिला है उनके गीतों को। तभी तो उनके गीत गुनगुनाने के लिए अधिक हैं तथ्य और सत्य की खोज के लिए कम। उनके गीत आधुनिक पेंटिंग की तरह ही हैं जैसा कि वे कहते हैं कि स्वामीनाथन जी ने उनकी प्रशंसा में कभी कहा था। और ये पेंटिगनुमा गीत कभी न तो ठीक ठीक विचार दे पाते हैं और क्रांतिधर्मा तो होते ही नहीं। माहेश्वर जी जब यह कहते हैं कि गम्भीर कवियों ने मंच को अछूत समझकर कविता का बड़ा अपकार किया है तो बात कुछ जचती नहीं। क्या सार्थक कविता मंचों की बदौलत जिन्दा है? सच तो यह है कि आज के मंच ने कविता का व्यापार ही किया है, दिया है तो बस थोड़ा सा मनोरंजन जो कि कोई कीर्तनकार या नौटंकी कार भी अपने तरीके से करता है। हां पहले कवि लोग मंच पर जाते थे पर तब गम्भीर कविता को सुनने सुनानेवाले मौजूद थे। नहीं जनवाद मन से नहीं उपजता जैसा कि माहेश्वर जी कहते हैं। असल में माहेश्वर जी के गीत मन से उपजते हैं। जनवाद तो विचार है दृष्टि है प्रतिबद्धता है।और इन्हीं चीजों का माहेश्वर जी के गीतों में अभाव है। आंखों में आंसू आना और आंखों से चिंगारी फूटना दो अलग तरह की परिघटनाएं हैं, दोनों को कभी कहीं विशेष परिस्थिति में ही जोड़ा जाना चाहिये।व्यक्तिगत भावुकता आशा, निराशा, प्रेम और सामाजिक सरोकारों के ज्ञानात्मक आवेगों में बड़ फर्क है।माहेश्वर जी उन्हें एक करने की कोशिश में सफल नहीं दिखते। और अंत में नई पीढ़ी के नवगीतकारों के नाम गिनाते हुए भी माहेश्वर तिवारी जी दृष्टि साफ नहीं हैं। ऐसा बुजुर्गगीतकार जिसके पास इतना अनुभव हो, ज्ञान हो वह भी किसी मोह में फंसकर जो कुछ नाम गिना रहा है वे किसी भी तरह से विवेकपूर्ण तटस्थ न्यायपूर्ण और तर्क संगत नहीं दिखते। ये चुनाव माहेश्वर जी के गीत व्यक्तित्व को एक और तरह से कमजोर सिद्ध करते हैं।
  • K.k. Bhasin: माहेशवर तिवारी जी के साक्षात्कारः में अगर ध्यान से मनन करें तो उनकी मन की सहजता का भी पता लगता है ! असल में माहेशवर जी के अन्दर एक सहज गीतकार भी है जो संवेदना एवं गीत के भावात्मक पक्ष से भी जुड़ा है ! उनके साक्षात्कारः में उनका यह पक्ष साफ़ दृष्टिगोचर होता है! पूरी प्रस्तुति को नवगीत की कसौटी पर ही कैसे देखें?
  • अवनीश सिंह चौहान: जब महेश्वर जी कहते हैं कि खाली जगह को कोई भरता है और वह कोई कौन है उसका भी उन्होंने संकेत किया - "कोई न कोई भांड़, विदूषक या नौटंकीबाज वहाँ काबिज हो जायेगा।" यानी कि वह स्वयं मंचों पर जाते हैं और वहां खाली जगह को भरने में तिवारी जी के साथ 'भांड़, विदूषक या नौटंकीबाज' मौजूद रहते होंगे। क्या महेश्वर जी ने उक्त लोगों का कभी प्रतिरोध किया- किसी मंच पर? क्या उन्होंने मंच पर कभी गंभीर कवियों की उपस्थिति बढ़ाने का प्रयास किया? या सिर्फ मंच शेयर करते रहे और उक्त श्रेणी से दोस्ती भी गांठे रहे ? यह दोहरा आचरण तो नहीं ?
  • Bhartendu Mishra: नवगीत के लिए समानांतर मंच की आवश्यकता है, जिसमे तथाकथित विदूषको की कोई जगह न हो। जहां गंभीर विमर्श हो। 2004 मे आगरा की नवगीत गोष्ठी मे मैने सोमठाकुर जी से पूछा था कि नवगीत दशको का विमर्श क्यो नही कराते..वे उनदिनो हिन्दी संस्थान के उपाध्यक्ष थे। मंच पर तिवारी जी भी थे यश मालवीय भी थे राजेन्द्र गौतम, बुद्धिनाथ मिश्र आदि अनेक नवगीतकार भी थे, सबने सहमति दी थी, स्वीकार किया गया- सस्थान से किसी को यह कार्य सौपने की बात भी हुई लेकिन ...फिर सब खतम ... सोमठाकुर जी नवगीत दशक 1 के रचनाकार हैं, उन्हे भी मंच ही खींचता रहा विमर्श नही।..जो कविता विमर्श के लिए नही है उसकी पाठ्यचर्या क्यो की जाए ?...ऐसे मंचीय कवियो के सरोकार गंगा गये गंगादास जमुना गये जमुना दास हो जाते है। लोगो की नजर मे सब रहता है ...माया और राम दोनो को साधने की कोशिश असंभव है। जिनकी श्र्द्धा मंचीय प्रपंचो से जुडी है वे सच्चे अर्थो मे नवगीत के मित्र नही हो सकते। शंभुनाथ जी के शब्दो मे वे नवगीत के शत्रु हैं।
  • Radhey Shyam Bandhu (राधेश्याम बंधु): माहेश्वर तिवारी की बात आंशिक रूप से सही है। कुछ अच्छे कवि भी मंच पर पहुचकर मंचीय़ हो गये । कवि सम्मेलनी व्यवसाय का हिस्सा बनने से। उनका स्तर गिरा है । इससे हमें बचना चाहिये।
  • K.k. Bhasin: नवगीत की स्वीकारता एवं दर्शकों की जागरूकता में बड़े स्तर पर एक अच्छी सोच पैदा करने की हमारी प्रबल इच्छा और दूसरी तरफ़ अपनी सरहदें खींच कर उन्हीं को प्रवेश देना जो हमारे उसूलों से बँधे हों , हम रेगिस्तान की आँधी में फँस जायेंगे ! अपनी सही दिशा पर विचार गम्भीरता से करें!
  • Jagdish Vyom: हिन्दी संस्थान या अन्य साहित्यिक अकादमियों में जिस तरह की साहित्यिक माफियागीरी और राजनीति व्याप्त है, उनसे नवगीत के लिए कोई उम्मीद करना समय खराब करना ही है.... हमें ही नवगीत और हिन्दी साहित्य के लिए अपने स्तर से ही जो कर सकते हैं वह करना है, नवगीत विमर्श इसी पहल का एक सोपान है....... मेरा निवेदन तो सिर्फ यही है कि ---- " बहते जल के साथ न बह/ कोशिश कर के मन की कह।" 
  • अवनीश सिंह चौहान: भाई रमाकांत जी ने तिवारी जी के इंटरव्यू के निहितार्थ को बखूबी रेखांकित किया है, वहीं "मंचीय कवियो के सरोकार गंगा गये गंगादास जमुना गये जमुना दास हो जाते है।लोगो की नजर मे सब रहता है ..माया और राम दोनो को साधने की कोशिश असंभव है। जिनकी श्र्द्धा मंचीय प्रपंचो से जुडी है वे सच्चे अर्थो मे नवगीत के मित्र नही हो सकते।शंभुनाथ जी के शब्दो मे वे नवगीत के शत्रु हैं।"- कहकर आ. भारतेंदु जी ने माहेश्वर जी जैसे उन तमाम लोगो के व्यक्तित्व पर प्रकाश डालते हुए बताया है कि ऐसे लोग नवगीत के 'मित्र' नहीं हो सकते। यानि कि ऐसे लोग सच्चे नवगीतकार नहीं। मुझे लगता है कि आ. राधेश्याम जी ("कुछ अच्छे कवि भी मंच पर पहुचकर मंचीय़ हो गये । कवि सम्मेलनी व्यवसाय का हिस्सा बनने से उनका स्तर गिरा है) ने भी तिवारी जी जैसे मंच से जुड़े रचनाकारों की ओर संकेत किया है। भसीन जी कहते हैं - "असल में माहेशवर जी के अन्दर एक सहज गीतकार भी है". यहाँ भी शब्द विचलन की ओर संकेत करता है। एक बार माहेश्वर जी ने दैनिक जागरण में 'सहज गीत' की वकालत की थी। यह वकालत भसीन जी की मीमांसा से मेल खाती है। तो क्या तिवारी जी को सहज गीतकार माना जाना चाहिए (मंच से उनके जुड़ाव और मंच की डिमांड को ध्यान में रखते हुए)?
  • Brijesh Neeraj (ब्रजेश नीरव): मंचीय कवि मंच की वकालत ही करेगा और उसके पक्ष में कुछ न कुछ तर्क गढ़ेगा जैसा कि तिवारी जी ने किया है। और यह संवेदना शब्द आजकल अच्छा प्रचलन में है कुछ भी दाल भात इसके नाम पर परोस दिया जाता है। मंच पर जाकर कौन सी जनता से जुड़ना चाहते हैं और कैसी संवेदना बटोरना चाहते हैं। सही क्यों नहीं कहते कि संवेदना के नाम पैसा बटोरना चाहते हैं। बाज़ार में दुकान सजाकर नवगीत बेचने की वकालत कब तक सुनी जाएगी। जनपक्षीय साहित्य और तथाकथित संवेदना युक्त साहित्य में अंतर होता है। जनपक्षीय साहित्य पैसे नहीं देता। उस पर सीटी और ताली नहीं बजती तो जाहिर है पैसे भी नहीं मिलते। तिवारी जी जनता से संपर्क करना चाहते हैं अपने नवगीत सुनाना चाहते हैं तो चलिए किसी गाँव में बाग़ में जमीन पर बैठते हैं और वहीं दो चार को इकट्ठा कर उन्हें अपने नवगीत सुनाते हैं। चलब्या।
  • Awanish Tripathi (अवनीश त्रिपाठी): मुझे नहीं लगता कि मंच ही नवगीत के पारेषण का सही स्थल है।तिवारी जी हों या अन्य कोई रचनाधर्मी, यदि वे मंचों से जुड़े हैं तो उनके अपने निहितार्थ हैं, चाहे वो बाज़ारवादी सोच से ग्रसित हों या तथाकथित संवेदना से। हंस क्यों बगुलों के बीच जाकर बैठने लगा??क्या ये स्वस्थ साहित्यिकता से परे नहीं हुआ?? प्रश्न यह है कि क्या यह साक्षात्कार पूर्व प्रेरित प्रश्नों का समूह तो नहीं।यश जी ने प्रश्नों का जो जाल बुना उत्तर भी उसी दिशा में बहते हुए मंचों की प्रशंसा के सागर में मिल गए। साक्षात्कार तो तब उत्कृष्ट बनता और तिवारी जी की सटीक सोच का ताना बाना तब खुलता जब प्रश्नकर्त्ता उनका प्रशंसक न होता और मंचीय प्रावधानों की विचार धारा से दूर होता। विमर्श की धारा को मोड़कर सोचना होगा क्या इस तरह के प्रश्न उत्तर से नवगीतकार के मन में मंचों के प्रति अधिष्ठित उदासीनता को समाप्त करने की चेष्टा तो नहीं?

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