कवि, आलोचक, अनुवादक डॉ अवनीश सिंह चौहान हिंदी भाषा एवं साहित्य की वेब पत्रिका— 'पूर्वाभास' के संपादक हैं। 'शब्दायन', 'गीत वसुधा' आदि समवेत संकलनों में आपके नवगीत और मेरी शाइन द्वारा सम्पादित अंग्रेजी कविता संग्रह 'ए स्ट्रिंग ऑफ़ वर्ड्स' एवं डॉ चारुशील एवं डॉ बिनोद मिश्रा द्वारा सम्पादित अंग्रेजी कविताओं का संकलन 'एक्जाइल्ड अमंग नेटिव्स' में आपकी रचनाएं संकलित की जा चुकी हैं। आपकी आधा दर्जन से अधिक अंग्रेजी भाषा की पुस्तकें कई विश्वविद्यालयों में पढ़ी-पढाई जा रही हैं। आपका नवगीत संग्रह 'टुकड़ा कागज़ का' साहित्य समाज में बहुत चर्चित रहा है। आपने 'बुद्धिनाथ मिश्र की रचनाधर्मिता' पुस्तक का बेहतरीन संपादन किया है। 'वंदे ब्रज वसुंधरा' सूक्ति को आत्मसात कर जीवन जीने वाले इस युवा रचनाकार को 'अंतर्राष्ट्रीय कविता कोश सम्मान', मिशीगन- अमेरिका से 'बुक ऑफ़ द ईयर अवार्ड', राष्ट्रीय समाचार पत्र 'राजस्थान पत्रिका' का 'सृजनात्मक साहित्य पुरस्कार', अभिव्यक्ति विश्वम् (अभिव्यक्ति एवं अनुभूति वेब पत्रिकाएं) का 'नवांकुर पुरस्कार आदि से अलंकृत किया जा चुका है।
नोट : कथ्य और शिल्प में बेहद कमजोर होने के कारण निम्नलिखित गीतों को (जिन्हें 2010 से पूर्व लिखा गया था) अवनीश सिंह चौहान के प्रथम नवगीत संग्रह- 'टुकड़ा कागज़ का' में संग्रहीत नहीं किया गया।
हुआ प्रवासी
हुआ प्रवासी गंगावासी
अब कितना घर का, गाँव का
कॉलेज टॉप किया ज्यों ही
वह गया गाँव से अमरीका
जाते ही तब छूट गया सब-
आँचल, राखी, रोली-टीका
बिना आसरे घर बूढा बापू
कभी धूप का, छाँव का
अंतिम सांस भरी बापू ने
क्रिया-करम को पैसा आया
घर-घर चर्चा हुई गाँव में -
क्या खोया, क्या किसने पाया?
समय जुआरी बैठा है फड़ पर
सब कुछ उसके दाँव का
दाम कमाया नाम कमाया
बड़े दिनों से गाँव न आया
भीतर-बाहर खोज रही माँ
अपनों में अपनों की छाया
क्या दूर बहुत अब हुआ रास्ता
अमरीका से गांव का?
फिर महकी अमराई
फिर महकी अमराई
कोयल की ऋतु आई
नए-नए बौरों से
डाल-डाल पगलाई
एक प्रश्न बार-बार
पूछता है मन उघार
तुम इतना क्यों फूले?
नई-नई गंधों से
सांस-सांस हुलसाई
अंतस में प्यार लिए
मधुरस के आस लिए
भँवरा बन क्यों झूले?
न-नए रागों से
कली-कली मुस्काई।
तुम न आए
मन पराग-केसर कुम्हलाए
तुम न आए
सुरभित सुमन, गूँज भँवरे की
मन में कितने फूल बिछाए
आम्र लताएँ, पिक की कुँजन
मन में मेरे मोर नचाए
रूप-कूक का मौसम जाए
तुम न आए
नीला व्योम, बोल चातक के
मन में मेरे आग लगाए
स्वाति-नक्षत्र सत्र प्राणों का
मन में मेरे राग जगाए
कबसे बैठे पलक बिछाए
तुम न आए
गूंगे दिन, कालिख रातों का
मन में मेरे रंज बढ़ाए
रिश्ता भूल गए बाती का
मन ने मेरे प्रश्न उठाए
नेह-छोह में पलक भिगाए
तुम न आए।
मेरे लिये
कहो जी कहो तुम
कहो कुछ अब तो कहो
मेरे लिये
भट्ठी-सी जलती हैं
अब स्मृतियाँ सारी
याद बहुत आती हैं
बतियाँ तुम्हारी
रहो जी रहो तुम
रहो साँसो में रहो
मेरे लिये
बेचेनी हो मन में
हो जाने देना
हूक उठे कोई तो
तड़पाने देना
सहो जी सहो तुम
सहो धरती-सा सहो
मेरे लिये
चारों ओर समंदर
यह पंछी भटके
उठती लहरों का डर
तन-मन में खटके
मिलो जी मिलो तुम
मिलो कश्ती-सा मिलो
मेरे लिये।
कोई अपना
कोई अपना छोड़ साथ यों
चला गया किस ओर
टप-टप-टप-टप बरसे पानी
टूटा सपन सलोना
अंदर-अंदर तिरता जाऊँ
भींगा कोना-कोना
चीख़ रहा है पल-छिन छिन-पल
अपने मन का मोर
किसने जाना कहाँ तलक
उड़ पाएगी गौरैया
किसने जाना कहाँ और कब
मुड़ जाएगी नैया
जान गए भी तो क्या होगा
समय बड़ा है चोर
पास हमारे आओगे कब
साथी साथ निभाने
हाथ पकड़कर ले चलना तब
मुझको किसी ठिकाने
मिलन हमारा ले आयेगी
खुशियों की तब भोर।
बरसाने की होली में
लाल-गुलाबी बजीं तालियाँ
बरसाने की होली में
बजे नगाड़े ढम-ढम-ढम-ढम
चूड़ी खन-खन, पायल छम-छम
सिर-टोपी पर भँजीं लाठियाँ
ठुमके ग्वाले तक-धिन-तक-धिन
ब्रजवासिन की सुनें गालियाँ
ब्रज की मीठी बोली में
मिलें-मिलायें गोरे-काले
मौज उड़ायें देखन वाले
तस्वीरों में जड़ते जायें
मन लहराये, फगुनाये दिन
प्रेम बहा सब तोड़ जालियाँ
दिलवालों की टोली में
चटक हुआ रंग फुलवारी का
फसलों की हरियल साड़ी का
पक जाने पर भइया, दाने
घर आयेंगे खेतों से बिन
गदरायीं हैं अभी बालियाँ
बैठीं अपनी डोली में।
नहीं दीखती अब गौरैया
नहीं दीखती अब गौरैया
गाँव-गली-घर औ' शहरों में
छत-मुँडेर पर, गाँव-खेत में
चिड़ीमार ने जाल बिछाए
पकड़-पकड़ कर, पिंजड़ों में धर
चिड़ियाघर में उसको लाए
सुधिया कभी दिखे ना कोई
बुत-से दिखते चेहरों में
सहमी-सी बैठी गौरैया
टूटे पर अपने सहलाए
दम घुटता है, साँसें दुखतीं
उड़ जाने की आस लगाए
गोते खाती है छिन-पलछिन
भीतर-बाहर की लहरों में
दाना भी है, पानी भी है
मीठे बोल, रवानी भी है
पराधीनता में सुख कैसा?
बात सभी ने जानी भी है
राजा-रानी, सभी यहाँ चुप
रखकर उसको पहरों में।
बड़े दिनों के बाद गगन में
बड़े दिनों के बाद गगन में
आये बदरा छाये
आते ही झट लगा खेलने
सूरज आँख-मिचौनी
घुले-मिले तो ऐसे-जैसे
मिसरी के संग नैनी
बाट जोहते रहे बटोही
धूप-छाँव के साये
हुआ मगन मन गाये कजरी
गाये बारहमासी
लहकी-थिरकी है पुरवइया
देख पक्षाभ-कपासी
औचक-भौचक ढ़ोल-मजीरा
मौसम धूम मचाये
करो हरी तुम कोख धरा की
आओ बदरा बरसो
क्या रक्खा है कल करने में
या करने में परसों
उम्मीदों की फसल उगाओ
हम हैं आस लगाये।
पढ़ी-लिखी है लेकिन
एक परी आयी महफ़िल में
लेकर एक छड़ी
एक इशारे में रुक जाती
सबसे बड़ी घड़ी
उसका जादू घट-घट बोले
गूंगे-बहरे आँखें खोले
रुक जाते हैं धावक सारे
जब हो जाय खड़ी
सम्मोहन के सूत पिरोये
दीवानों को खूब भिगोये
चाह रही कुछ हासिल करना
देकर फूल-लड़ी
घड़ी देखकर बदले पाला
बड़ कुर्सी पर डाले माला
पढ़ी-लिखी है लेकिन ज्यादा
उससे कहीं कढ़ी।
जागीं सब आशाएँ
चालक- पथ की, जीवन रथ की
लेकर नव भाषाएँ
आया है नव वर्ष हमारा
जागीं सब आशाएँ
नये रंगों से रंगी ज़िन्दगी
रंगोली-सी सोहे
सात सुरों से सजी बांसुरी
जैसे तन-मन मोहे
चलो समय का पहिया घूमा
बदलीं परिभाषाएँ
फूल-फूल में प्रेम बढ़ेगा
महकेगी फुलवारी
धूप-चांदनी, बरखे बरखा
लहकेगी हर क्यारी
झोली में सबके फल होंगे
पूरी अभिलाषाएँ।
गूँजी फिर शहनाई
डूबा था इकतारा मन में
जाने कब से
चाह रहा था खुलना-खिलना
अपने ढब से
दी झनकार सुनाई।
खुलीं खिड़कियाँ, दरवाज़े
जागे परकोटे
चिड़ियाँ छोटीं, तोते मोटे
मिलकर लोटे
दृश्य लगे सुखदाई।
महकीं गलियाँ, चहकीं सड़कें
गाजे-बाजे
लोग घरों से आये बाहर
बनकर राजे
गूँजी फिर शहनाई।
सारे धड़ में उभरी साँटें
बहुत दर्द है गुड़ने का
पैनी धारों वाले मंजे
छुप बैठे डोर-पतंगो में
उड़ता हुआ और को देखा
जा काटा उनको जंगों में
हो स्वच्छंद, करें मनमानी
मन सिंहासन चढ़ने का
ख़ैर नहीं कच्चे धागों की
जिनकी नाज़ुक उधड़ी लड़ियाँ
कटरीले झुरमुट में फँसकर
टूट रही हैं जिनकी कड़ियाँ
बहुत बिखरना हुआ आज तक
आया मौक़ा जुड़ने का
अवरोधों से टकराने का
जो ज़ज्बा रहता था मन में
चुप्पी मारे क्यों बैठा है
जाके किसी अजाने वन में
किसी तरह उकसाओ इसको
समय आ गया भिड़ने का।
हम बंजारे मारे-मारे
फिरते-रहते गली-गली
जलती भट्ठी, तपता लोहा
नए रंग ने है मन मोहा
चाहें जैसा, मोड़ें वैसा
धरे निहाई अली-बली
नए-नए औज़ार बनाएँ
नाविक के पतवार बनाएँ
रही कठौती अपनी फूटी
खा भी लेते भुनी-जली
राहगीर मिल ताने कसते
हम हैं फिर भी रहते हंसते
अभी आपका समय सुनहरा
जो सुन लेते बुरी-भली।
दाँव लगा कपटी शकुनी से
हार वरूँ मैं कब तक ?
कहो, तात! विपरीत तटों का
सेतु बनूँ मैं कब तक ?
इनका-उनका बोझा-बस्ता
पीठ धरूँ मैं कब तक ?
बड़े-बड़े ज़ालिम पिंडों की
चोट सहूँ मैं कब तक ?
पाँव फँसाए गहरे पानी
खड़ा रहूँ मैं कब तक ?
नीली होकर उधड़ी चमड़ी
धार गहूँ मैं कब तक ?
कोई तो बतलाए आकर
यहाँ रहूँ मैं कब तक ?
रोआँ-रोआँ हाड़ कँपाती
शीत सहूँ मैं कब तक ?
बिजली, ओलों, बारिश वाली
रात सहूँ मैं कब तक ?
बहुत हुआ, अब और न होगा
धीर धरूँ मैं कब तक ?
गटक रहे हैं लोग यहाँ पर
विज्ञापन की गोली
एक मिनट में दिख जाती है
दुनिया कितनी गोल
तय होता है कहाँ-कहाँ कब
किसका कितना मोल
जाने कितने करतब करती
विज्ञापन की टोली
चाहे या ना चाहे कोई
मन में चाह जगाती
और रास्ता मोड़-माड़ कर
घर अपने ले जाती
विज्ञापन की अदा निराली
बन जाती हमजोली
ज्ञानी अपना ज्ञान भूलकर
मूरख बन ही जाता
मूरख तो मूरख ही ठहरा
कहाँ कभी बच पता
सबके काँधे धरी हुई है
विज्ञापन की डोली।
नोट : कथ्य और शिल्प में बेहद कमजोर होने के कारण उपर्युक्त गीतों को (जिन्हें 2010 से पूर्व लिखा गया था) अवनीश सिंह चौहान के प्रथम नवगीत संग्रह- 'टुकड़ा कागज़ का' में संग्रहीत नहीं किया गया।
डूबा था इकतारा मन में
जाने कब से
चाह रहा था खुलना-खिलना
अपने ढब से
दी झनकार सुनाई।
खुलीं खिड़कियाँ, दरवाज़े
जागे परकोटे
चिड़ियाँ छोटीं, तोते मोटे
मिलकर लोटे
दृश्य लगे सुखदाई।
महकीं गलियाँ, चहकीं सड़कें
गाजे-बाजे
लोग घरों से आये बाहर
बनकर राजे
गूँजी फिर शहनाई।
सारे धड़ में उभरी साँटें
सारे धड़ में उभरी साँटें
बहुत दर्द है गुड़ने का
पैनी धारों वाले मंजे
छुप बैठे डोर-पतंगो में
उड़ता हुआ और को देखा
जा काटा उनको जंगों में
हो स्वच्छंद, करें मनमानी
मन सिंहासन चढ़ने का
ख़ैर नहीं कच्चे धागों की
जिनकी नाज़ुक उधड़ी लड़ियाँ
कटरीले झुरमुट में फँसकर
टूट रही हैं जिनकी कड़ियाँ
बहुत बिखरना हुआ आज तक
आया मौक़ा जुड़ने का
अवरोधों से टकराने का
जो ज़ज्बा रहता था मन में
चुप्पी मारे क्यों बैठा है
जाके किसी अजाने वन में
किसी तरह उकसाओ इसको
समय आ गया भिड़ने का।
हम बंजारे
हम बंजारे मारे-मारे
फिरते-रहते गली-गली
जलती भट्ठी, तपता लोहा
नए रंग ने है मन मोहा
चाहें जैसा, मोड़ें वैसा
धरे निहाई अली-बली
नए-नए औज़ार बनाएँ
नाविक के पतवार बनाएँ
रही कठौती अपनी फूटी
खा भी लेते भुनी-जली
राहगीर मिल ताने कसते
हम हैं फिर भी रहते हंसते
अभी आपका समय सुनहरा
जो सुन लेते बुरी-भली।
धीर धरूँ मैं कब तक
दाँव लगा कपटी शकुनी से
हार वरूँ मैं कब तक ?
कहो, तात! विपरीत तटों का
सेतु बनूँ मैं कब तक ?
इनका-उनका बोझा-बस्ता
पीठ धरूँ मैं कब तक ?
बड़े-बड़े ज़ालिम पिंडों की
चोट सहूँ मैं कब तक ?
पाँव फँसाए गहरे पानी
खड़ा रहूँ मैं कब तक ?
नीली होकर उधड़ी चमड़ी
धार गहूँ मैं कब तक ?
कोई तो बतलाए आकर
यहाँ रहूँ मैं कब तक ?
रोआँ-रोआँ हाड़ कँपाती
शीत सहूँ मैं कब तक ?
बिजली, ओलों, बारिश वाली
रात सहूँ मैं कब तक ?
बहुत हुआ, अब और न होगा
धीर धरूँ मैं कब तक ?
विज्ञापन की डोली
गटक रहे हैं लोग यहाँ पर
विज्ञापन की गोली
एक मिनट में दिख जाती है
दुनिया कितनी गोल
तय होता है कहाँ-कहाँ कब
किसका कितना मोल
जाने कितने करतब करती
विज्ञापन की टोली
चाहे या ना चाहे कोई
मन में चाह जगाती
और रास्ता मोड़-माड़ कर
घर अपने ले जाती
विज्ञापन की अदा निराली
बन जाती हमजोली
ज्ञानी अपना ज्ञान भूलकर
मूरख बन ही जाता
मूरख तो मूरख ही ठहरा
कहाँ कभी बच पता
सबके काँधे धरी हुई है
विज्ञापन की डोली।
नोट : कथ्य और शिल्प में बेहद कमजोर होने के कारण उपर्युक्त गीतों को (जिन्हें 2010 से पूर्व लिखा गया था) अवनीश सिंह चौहान के प्रथम नवगीत संग्रह- 'टुकड़ा कागज़ का' में संग्रहीत नहीं किया गया।
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