ISSN: 2277-260X 

International Journal of Higher Education and Research

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संस्मरण : लिखना तो बहाना है - ​अवनीश सिंह चौहान

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कई बार मैंने अपने पिताजी से आग्रह किया कि पिताजी दादाजी के बारे में कुछ बताएं? सुना है दादाजी धनी-मनी, निर्भीक, बहादुर, उदारमना व्यक्ति थे। जरूरतमन्दों की धन आदि से बड़ी मदद करते थे, घोड़ी पर चलते थे, पढे-लिखे भी थे? परन्तु, पिताजी ने कभी भी मेरे प्रश्नों का जवाब नहीं दिया। जब कभी भी मैंने उनसे कुछ पूछना चाहा तब वह मौन धारण कर लिया करते; लाख आग्रह करने पर भी टस-से-मस नहीं होते। किंतु, इस बार उनका मौन, पता नहीं कैसे, टूट ही गया! बस, भेद इतना-सा था कि अबकी बार प्रश्न मेरे नहीं थे, बल्कि मेरे ज्येष्ठ पुत्र ओम के थे।

 

पिताजी ओम से अत्यधिक प्रेम करते हैं। जब ओम ने पिताजी से अपने परदादा के बारे में पूछना प्रारंभ किया तब उन्होंने बड़ी मुश्किल से संक्षेप में दो-चार बातें बतायीं। मैं भी उन्हें बड़े ध्यान से सुन रहा था। उन्होंने बताया कि अतीत के बारे में बात करने से कोई लाभ नहीं है। ऐसा करने से कभी-कभी मन को कष्ट भी होता है। इसलिए, अपने अतीत पर चर्चा करना मुझे ठीक नहीं लगता! फिर भी, तुम्हारा आग्रह है इसलिए बताना पड़ रहा है। तुम्हारे परदादा अपनी युवावस्था में मजबूत कद-काठी के थे। प्रभावशाली व्यक्तित्व। कड़क मिजाज।पढ़े-लिखे, सभ्य। खाने-पीने के शौकीन। उनके पास एक बेहतरीन घोड़ी थीं। आज़ादी से लगभग 10 वर्ष पूर्व उनका विवाह धनवाली गांव के एक सम्पन्न परिवार में हुआ था। आज़ादी के बाद वह रेलवे में नौकरी करने लगे। उनकी पहली पोस्टिंग बनारस में हुई थी। वह चार भाई थे- सबसे बड़े श्रद्धेय (स्व) अर्जुन सिंह जी, दूसरे नंबर पर वह स्वयं और दो छोटे भाई- श्रद्धेय (स्व) वन्दन सिंह जी और श्रद्धेय (स्व) रघुवीर सिंह जी। चारों भाई बड़े निर्भीक और बहादुर थे; उनके लगभग डेढ़-डेढ़ गज़ के सीने थे; लाठी चलाने में सभी माहिर थे, आसपास के गांवों में उनका बड़ा दबदबा था। स्वतंत्रता संग्राम सेनानी रह चुके उनके पिता (आपके परदादा) श्रद्धेय (स्व) नवाब सिंह चौहान जी अपने क्षेत्र के अति संपन्न व्यक्तियों में से एक थे। वह ससुराल पक्ष से भी बहुत मजबूत थे। उनके पास समय-सापेक्ष सब सुख-सुविधाएँ थीं। अच्छी खेती-बाड़ी थी। गौधन था। अच्छी आमदनी थी। और वैसे ही खर्च। उन्होंने अपनी सामर्थ्यभर अपने बेटों की अच्छी परिवरिश की। किन्तु, नियति को कुछ और ही मंजूर था!

 

हुआ यह कि जब उनके बेटे जवान हुए तो उनके तीन बेटे ऐशो-आराम का जीवन जीने लगे। काम-धाम में उन भाइयों का मन नहीं लगता, सो उनका ज्यादातर समय ननिहाल हथिनापुर (बिधूना के पास) में ही बीतता था। ननिहाल में उनके मामा जी अपने पिता के इकलौते पुत्र थे। उनके पास लगभग 700 बीघा जमीन थी। 20-20 बीघा के दो-तीन बाग थे। पुश्तैनी कोठी थी। घोड़ा-गाड़ी थी। नौकर-चाकर थे। यह वह समय था जब भारत स्वतंत्र हो चुका था, स्वतंत्र भारत में अपना संविधान लागू हो चुका था, प्रथम लोकसभा के लिए आम चुनाव होने वाले थे। भारत के उज्ज्वल भविष्य के सपने देखे जा रहे थे। श्रद्धेय नवाब सिंह जी कुछ और भी देख रहे थे। उन्होंने देखा कि उनके बेटे अपनी अलग राह पर चल रहे हैं? उनकी अपनी ढपली, अपना राग था। जवानी की आग। झगड़े-फसाद। मनमाना जीवन। धन का अपव्यय। मीट, मुर्गा, दारू, जुआ। पारिवारिक कलह। ऐसे में उन्हें अपने दूसरे बेटे जोधा सिंह की याद आई और अंतिम विकल्प के रूप में वह उन्हें घर वापस लाने के लिए बनारस को चल पड़े। बनारस, जहां उनका लाड़ला बेटा जोधा सिंह जी रेलवे में कार्यरत था। बनारस पहुंचकर जैसे-तैसे उन्होंने अपने बेटे को मनाया और उनसे रेलवे की नौकरी छोड़ने का आग्रह किया। वह अपने पुत्र से बड़े कातर भाव में बोले कि 'बेटा, मेरे पास किसी बात की कमी नहीं। फिर भी, ऐसा लगता है कि मैं भीतर से टूट गया हूं, अकेला पड़ गया हूं। मुझे तुम्हारे सहारे की जरूरत है। अब तुम घर चलो।' इसे नियति मान अपने पिता के आदेश का पालन करने के लिए वह रेलवे की नौकरी छोड़ अपने पिता के साथ गांव चले आए। उन्होंने गांव आकर बहुत परिश्रम किया। खेती की। कारोबार किया। और खूब धन कमाया। वह जरूरतमंद लोगों को ब्याज पर या बिना ब्याज के भी धन उधार देने लगे। उनका लेन-देन का व्यापार भी चल निकला। आस-पास के तमाम गांवों के लोग उनसे कर्ज लेते और काम होने पर कई भले लोग कर्ज चुका भी देते। हाँ, कुछ ऐसे लोग भी रहते जो कर्ज नहीं भी चुका पाते थे और कुछ ऐसे भी जो कर्ज लेकर कर्ज चुकाना ही नहीं चाहते थे। कर्ज न चुकाने वालों के लिए वह सिर्फ इतना कहते कि उन्होंने उन लोगों का पिछले जन्म में कुछ खाया-पिया होगा, सो वह सब चुकता हो गया और यदि नहीं खाया-पिया होगा तो वे लोग अगले जन्म में चुकायेंगे ही। सन्तोषी स्वभाव के पिताजी अपने दद्दा की इन जीवनोपयोगी बातों को जस-का-तस बड़े प्रेम से मन-मस्तिष्क में धारण करते रहे।

 

कर्ज लेने वालों में उनके एक ऐसे परम मित्र भी थे, जिन्होंने सम स्थिति में भी उनका कर्ज नहीं चुकाया। वह कुसमरा गांव (बिधूना तहसील में धनवाली के पास) के अति संपन्न व्यक्तियों में से एक थे। वह गांव के प्रधान थे। उनके दो भट्टे थे। एक आढ़त चलती थी। उनके पास कई हेक्टेयर जमीन भी थी। श्रद्धेय जोधा सिंह जी का उनसे परिचय उनकी ससुराल (धनवाली- बिधूना, औरैया) में उनके साले साहब श्रद्धेय छोटे सिंह जी परिहार ने करवाया था। सहज स्वभाव के श्रद्धेय छोटे सिंह जी धनवाली गाँव के समृद्ध व्यक्ति थे। उनके पास लगभग 200 बीघे जमीन थी। कई बाग़-बगीचे थे। एक हलवाहा खेत जोतने के लिए था। एक नौकर भी उनके यहां रहता था। दिन मजे से गुजर रहे थे कि तभी कुसमरा के उन मित्र का गांव के ही एक सम्पन्न परिवार से प्रथम प्रधानी के बस्ते को लेकर विवाद हो गया, जिसमें एक व्यक्ति की मृत्यु हो गयी। हत्या का आरोप उन पर लगा और उन्हें जेल जाना पड़ा। उनकी अनुपस्थिति में आहत विपक्षियों ने उनकी आढ़त और भट्टों को बंद करवा दिया। खेत बोने नहीं दिये। घर में औऱ कोई उनका साथ देने वाला था नहीं! उनकी पत्नी और बच्चे गांव छोड़कर उनकी ससुराल चले गए। घर-गृहस्थी चौपट हो गयी। आमदनी ख़त्म हो गयी और खर्चे तो थे ही। ऐसे में श्रद्धेय जोधा सिंह ने मित्र-धर्म का निर्वहन करते हुए उन्हें धीरे-धीरे लगभग रु 70,000/- (सत्तर हजार) बिना ब्याज के उधार दिए। उन्होंने उनकी जमानत करवाई। उन्होंने जनपद में उनका केस लड़ने से लेकर हाईकोर्ट इलाहबाद में केस जीतने तक, बच्चों की पढ़ाई-लिखाई, शादी-विवाह आदि में भी उन पर बहुत धन खर्च किया। उनके विस्थापित परिवार को पुनर्स्थापित करने में पुरजोर मदद की। पिताजी और ताऊजी इसके साक्षी रहे। पिताजी बताते है कि जब वह कक्षा 10 के छात्र थे तब उन्हें दादाजी ने उन मित्र की बेटी की शादी के लिए रु 10,000/- (दस हज़ार) देने के लिए भेजा था, जिससे उनकी बेटी का विधिवत विवाह उच्च घराने में हो सका था। उनके घर में खुशियों ने दस्तक देना शुरू कर दिया था। खोया सम्मान वापस मिल रहा था। भारत आगे बढ़ रहा था। भारतीय सेना 1967 में नाथु ला दर्रे में चीन के साथ हुई भिड़ंत में अपना कीर्तमान स्थापित कर चुकी थी।

 

पिताजी का जन्म 10 जुलाई 1951 को चंदपुरा गांव में हुआ था। सात माह में ही अपनी माँ के गर्भ से जन्म लेने के कारण जन्म के समय न तो उनकी आँखें ही खुली थी और न ही होठों से कोई स्वर फूटा था। इस नवजात शिशु को रुई में लपेटकर पीढ़ी पर लिटा दिया जाता था और होठों पर रुई का फोहा दूध में भिंगोकर रख दिया जाता था। दादी माँ श्रद्धेया रामबेटी जी बड़ी साधिका थीं, सो उन्होंने अपने इष्टदेव से कह दिया कि अब उन्हें ही इस बच्चे की रक्षा करनी है। जीवन बचाना है। शायद ईश्वर ने उनकी सुन ली! चमत्कार हुआ। लगभग 02 माह बाद पिताजी श्री प्रहलाद सिंह जी (छोटे लला) ने आँखें खोलीं। गांव में ढिंढोरा पिट गया। उत्सव मनाया गया। घर-परिवार के लोगों ने उन्हें दुआएं दी। पिताजी अपने पिता की तीसरी सन्तान थे। उनके बड़े भाई श्रद्धेय (स्व) निरंजन सिंह जी (बड़े लला) उनसे लगभग 12 वर्ष बड़े थे और उनकी इकलौती बहन श्रद्धेया (स्व) बिट्टा देवी जी भी उनसे लगभग 5-6 वर्ष बड़ी थीं। पिताजी जब बाल्यावस्था में ही थे कि तभी उनके दादाजी श्रद्धेय नवाब सिंह जी को किसी ने जहर दे दिया था, जिससे उनकी मृत्यु हो गयी थी। उनकी जायदाद का बंटवारा पहले ही हो चुका था। उनके चार बेटे अलग-अलग अपना घर-द्वार बनाकर अपने परिवारों के साथ प्रेम से रहने लगे थे। अपने पिताजी के साथ दादाजी भी अलग पुश्तैनी कच्चे मकान में रहने लगे थे। उनका यह मकान 1925 में किसी भवन निर्माण विशेषज्ञ की देखरेख में बनवाया गया था। इस मकान के दो कच्चे कमरे गांव के हमारे पक्के मकान के भीतर अब भी अच्छी स्थिति में मौजूद हैं। दादाजी का बड़ा बेटा जवान हो रहा था। जवान होते ही एक दिन अचानक उनके इस बड़े बेटे ने भारतीय सेना की भर्ती देखी और वह चुन लिये गए। उनका धूमधाम से विवाह कर दिया गया। बुआजी का भी विवाह तरसमा (पोरसा, मुरैना) के एक तोमर परिवार में कर दिया गया। समय अपनी गति से आगे बढ़ रहा था। दादाजी की उम्र भी धीरे-धीरे बढ़ रही थी और पिताजी अभी बहुत छोटे थे। दादाजी बीमार भी रहने लगे थे। खांसी की शिकायत। इटावा जनपद के बड़े-बड़े डॉक्टरों ने उनका इलाज किया, किंतु वह भी उनकी खांसी की बीमारी को ठीक न कर पाए। कुछ दिन आराम मिलता, फिर वह बीमार पड़ जाते। उनका शरीर शिथिल हो रहा था। इसी दौरान उन्होंने पिताजी को कुसमरा अपने मित्र के पास अपना रुपया वापस लेने के लिए कई बार भेजा। जब पिताजी उनके मित्र के घर पहुंचते तो उनका बहुत स्वागत होता। किन्तु, जब वह उनसे कर्ज चुकाने के लिए कहते तो वह रो देते और कहते कि उनका बड़ा बेटा अध्यापक हो गया है, अब घर का मालिक वही है, वह जमीन नहीं बेचने देता, कर्ज देने से मना करता है (कुछ वर्षों बाद उनका छोटा बेटा भी डॉक्टरी की पढ़ाई कर सरकारी डॉक्टर हो गया और बिधूना में प्रैक्टिस भी करने लगा था)। उनके आसुंओ को देखकर पिताजी द्रवित हो जाते। बाद में पिताजी ने उनके घर जाना ही बंद कर दिया था!

 

कई वर्षों तक संघर्ष करते रहने के बाद एक दिन अचानक दादाजी का देहांत हो गया। कारण वही। वह घोड़ी से उतरे ही थे कि उन्हें जोर से खांसी उठी और फिर उनकी सांस अटक गई। उस दिन वह कचहरी से जमीन-सम्बन्धी मुकद्दमा जीत कर लौटे थे। विपक्षियों ने उनकी जमीन छल से अपने नाम करा ली थी और उस पर कब्जा जमा लिया था। उन्होंने सत्य पर अडिग रहकर अपने जीवनकाल में पहले भी कई मुकद्दमे जीते थे। यह आखिरी जीत थी। और एक प्रकार से बड़ी हार भी। हार इसलिए कि देहांत के समय दादाजी का लगभग रु 700,000/- (सात लाख), जोकि ब्याज और बिना ब्याज के लोगों में बंटा हुआ था, डूब गया। कहते हैं उस समय रु 1000/- (एक हज़ार) में एक एकड़ जमीन खरीदी जा सकती थी। पिताजी उस समय B.Sc (Ag) स्नातक-प्रथम वर्ष के छात्र थे; उन पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा। पढ़ाई भी पूरी नहीं हुई थी। दादाजी का धन भी डूब चुका था। ताऊजी भी बँटवारा कर अपने परिवार के साथ अलग रहने लगे थे। घर चलाने के लिए थोड़ी-बहुत जमीन बची थी और दादी के पास थोड़ा-बहुत पैसा। कुसमरा की 60 बीघा जमीन दादाजी अपने मित्र की मदद करने के लिए पहले ही बेच चुके थे और धनवाली में जो 50 बीघा जमीन उन्होंने कभी खरीदी थी, उसमें से लगभग आधी जमीन को दादाजी की मृत्यु के बाद ताऊजी ने अपने मामाजी जी के सहयोग से बेच तो दिया और बेचने के समय पिताजी उनके साथ ननिहाल भी गए थे, परन्तु पिताजी को एक भी पाई हिस्से में नहीं मिली। इन विषम परिस्थितियों में भी पिताजी ने अपना संतुलन नहीं खोया। उनके ताऊजी से सम्बन्ध सदैव मधुर बने रहे। वह ताऊजी एवं ताईजी से बहुत स्नेह करते रहे, उनका खूब सम्मान करते रहे। ताऊजी और ताई जी भी जीवनभर उन्हें उतना ही प्यार देते रहे। पर जाने क्यों दादीमाँ सदैव मौन धारण किये रहीं! कभी उनके बारे में कोई बात नहीं करतीं। चुप रहतीं। धैर्य भी बनाए रखा, कभी टूटी नहीं। वह बड़ी साहसी थीं। कड़क-मिजाज। स्वाभिमानी। आदर्शवादी। गांव की महिलाएं उनसे डरती थीं क्योंकि गलत बात करने वाली महिलाओं को वह मुंह पर ही डपट देती थीं! वह उच्च कोटि की साधिका भी थीं। उन्होंने पिताजी की ठीक से परवरिश की, उनकी पढ़ाई पूरी करवाई। पिताजी ने भी उनका पूरा ख़याल रखा। उनकी आज्ञा मानी। पढ़ाई के दौरान पिताजी छात्र राजनीति में सक्रिय हुए और छात्र संघ के चुनाव में प्रचण्ड बहुमत से सचिव चुने गए। पढ़ाई पूरी होते ही वह राजनीति में हाथ-पांव मारने लगे। राजनीति में वह सफल तो नहीं हुए, परन्तु क्षेत्र के लोग उन्हें नेताजी कहने लगे। 1977 में उनका विधिवत विवाह गोरखपुर (कन्नौज) की उमा देवी जी बैस से हो गया। माँ ने बड़ी लगन और निष्ठा से घर-गृहस्थी सम्भाली। एक अच्छी बहू के रूप में माँ ने दादीमाँ की खूब सेवा की। सेवा ऐसी कि उन्होंने (और पिताजी ने भी) केंद्र सरकार की नौकरी तक छोड़ दी, किन्तु अपनी सास का साथ कभी नहीं छोड़ा (जिस समय माताजी-पिताजी का सरकारी सेवा में चयन होने के बाद उन्हें सर्विस ज्वाइन करने के लिए दिल्ली जाना था, दादी माँ की तबियत बहुत ख़राब चल रही थी)। बाद में माताजी की नियुक्ति गृह जनपद के एक इंटर कॉलेज में भी हुई थी; परन्तु, दमा की मरीज़ दादीमाँ की हालत ऐसी नहीं थी कि उन्हें अकेला छोड़ा जा सकता। इसलिए, उन्होंने वह नौकरी भी छोड़ दी। उनका यह त्याग कम तो नहीं!

 

समय ने फिर करवट ली। पिताजी का लगभग एक वर्ष बाद पुनः उत्तर प्रदेश कृषि विभाग में चयन हो गया और उनकी पहली पोस्टिंग मथुरा में हुई। एक वर्ष बाद उनका स्थानांतरण इटावा हो गया, जहां वह रिटायरमेंट तक सेवारत रहे (इसी दौरान एक-आध साल के लिए उन्हें मैनपुरी भी भेजा गया)। मेरा और मेरी छोटी बहन अलका (जिसकी बाल्यावस्था में पानी में डूबने से मृत्यु हो गई थी) का जन्म हो चुका था। मैं स्कूल पढ़ने जाने लगा था। गांव के प्राथमिक विद्यालय में। एक दिन मुझे अचानक स्कूल से बुलबाया गया। घर पहुंचकर देखा कि दादीमाँ माताजी से कह रही थी कि बहू, मुझे जमीन पर लिटा दो, मेरा समय आ गया है। घर-परिवार के लोग यह देख-सुन फूट-फूटकर रोने लगे। दादीमाँ को जमीन पर लिटाया गया। उन्हें तुलसीदल और गंगाजल दिया गया। उन्होंने मेरी माँ से फिर कहा कि तुमने मेरी बड़ी सेवा की है, ईश्वर से यही प्रार्थना है कि तुम सदैव सुखी रहो! कुछ पल बाद उनका शरीर बड़ी सहजता से शांत हो गया। उनके झुर्रीदार चेहरे पर असीम शान्ति थी, अदभुत आनंद का भाव था। उस दिन तारीख थी 16 अप्रैल, सन 1985।


 

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